बचपन में जब घर पे थे, फ्रिज पर रखे sound box से --
गुलाम अली और मेंहदी हसन साहब सुबह-शाम अज़ान दिया करते थे,
साकी के मोहल्ले से मैकदा होते हुए, पंकज उधास और जगजीत सिंह
अपनी ग़ज़ल गायकी प्रतियोगिता लेकर गाहे-बगाहे आते ही रहते थे.
अब आवाज तो ऐसी थी नहीं कि इनकी तरह हम गा तो सकते नहीं थे, सो सोचा बजाना सीख लेते हैं, बस लगे घर में पड़े इक पुराने हारमोनियम पे हाथ पटकने. हमें अपनी वाद्ययंत्र प्रतिभा पहचानते और हारमोनियम टूटते देर ना लगी और ग़ालिब, फैज़, जिगर, मोमिन और गुलज़ार के सफहों में दबी चिंगारी की तरह ही हमारा उंगलियाँ थिरकाने का सपना कहीं दब सा गया. पढाई-लिखी ने IIT KANPUR पंहुचा दिया.....
COLLEGE में कुछ अदभुत लोगों से से मिलना हुआ जिन्होंने हमारे दिल में 'दोस्ती' का पंच-सितारा सराय
खोल दिया और जिन्दगी भर के लिए चेक-इन कर लिया! इस सराय के प्रबंधन के ताम-झाम और वैद्युत-अभ्यान्त्रिकी के नियमित झटके, जेहन में सोयीं मुवास्सिरी की अंगड़ाईयों को बारहा सुलाते रहे.
सराय की महफ़िलों में जब भी खून की सरगोशियाँ, सरकारी खतरे का निशान पार करतीं, हम "बच्चन की मधुशाला" की रटी-रटाई पंक्तियाँ सुना कर इन लहरों को भी सुला दिया करते थे. इस दौरे-तरक्की में, दोस्तों ने हमारा परिचय "पत्थर" और "धातु" संगीत से भी कराया! अंग्रेजी पे हमारी विशेष पकड़ के बारे में हमें बताने की जरुरत नहीं है, लेकिन गाँव की 'गंवारियत से तथाकथित आधुनिकता' के अनुकूलन में हम इन "पथरीले" और "धातुई" शोर में नाचते-झूमते भीड़ मैं शामिल हो गए, शेरों-शायरी, गजलकारी और गद्य-पद्य की आवाजें इस शोर में खोती गयीं......
इसी बीच हम अपने भविष्य के मालिक से भी मिले, जी हाँ श्रीमान KEYBOARD से, कलम का रिश्ता तो बस EXAMS तक रहा गया था और वहां भी कमबघ्त लिखने को शब्द कम पड़ जाते थे. दोस्ती के सराय में भी अब FACEBOOK की समाचार पट्टिका पे हाजरी होने लगी थी. जैसा की Sigmund Freud साहब कहते हैं, हमारे जेहन के तहखाने मैं कैद हारमोनियम के बटनों की खट-खट, हमें अब KEYBOARD के बटनों में सुनाई देने लगी थीं. जिन्दगी के सारे रंग तो देखे नहीं अब तक, लेकिन उन रंगों से भी जयादा रंग दिखने का दावा करने वाली DIGITAL SCREENS पे आँखें टिकने लगी थीं. इस खुशफहमी के साथ की हमारी धुन पे नाचता है जो उस KEYBOARD पे बरबस उंगलियाँ थिरकती रहती थीं......
वक़्त बदला भारतीय प्राद्यौगिकी संस्थान से विदा ली हमने! रोज़ी-रोटी की तलाश मैं BANGALORE में आकर शरण ली, और यहाँ हमें ज्ञान हुआ की दरअसल हमारी खुशफहमी, ग़लतफ़हमी थी और तबतक हम KEYBOARD के गुलाम बन चुके थे :( जी हाँ, KEYBOARD पे अपनी उंगलियाँ थिरकाना ही हमारा पेशा है! KEYBOARD की गुलामी करते हैं हम !! कहने को तो इस KEYBOARD में 100 से ज्यादा KEYS हैं लेकिन इसकी गुलामी का ताला किसी चाबी से नहीं खुलता !! जी हाँ "KEYBOARD के गुलाम" हैं हम !!
दोस्ती के सराय के कमरों में बस यादों की तश्वीरें तंगी पड़ी हैं, कुछ तो कमरे भी खाली हो गए हैं, और KEYBOARD की मेहरबानी से कुछ कमरों में नए लोग भी आ गए हैं और कुछ पर ताला लटका पड़ा है, यदा-कदा FACEBOOK या PHONE पे जब कभी बातें होतीं हैं तो KEYBOARD से हम इन DIGITAL तालों का KEYS मांग लिया करते थे और उन पुरानी पड़ती तश्विरों को निहार आते हैं......
प्रेमचंद से "कलम के सिपाही" की बातें सुनते सुनते भी हम "KEYBOARD के गुलाम" बन गए !!
मजबूरी का अहसास ही गुलामी का ख़याल लाता है, KEYBOARD पे SCRIPTS लिखते-लिखते, जिन्दगी की SCRIPT में भी SYNTAX और FONT के मायने और बंदिशें आने लगी हैं! डर लगने लगा है, धडकनों को भी BYTES में ना गिनने लग जाऊं! आखिरी चार-पांच सालों के सफ़र में ऐसे मोड़ पे आ गए हैं, जहाँ से आगे के रास्ते FLOW-CHART पर खीचें हैं और RECURSION की भूल-भुलैया हमें बार-बार इसी मोड़ पर ला पटकती है!............. और आज अचानक KEYBOARD की खट-खट ने यादों में सोये गुलाम अली साब के हंगामों को जगा दिया है और जाने कितने ही शब्दों, नगमों, और ख्यालों की अंगडाइयां जेहन मैं शोर मचाने लगी हैं. आज ख्यालों के बादल पे बैठ, गाँव के उन खेतों के ऊपर मंडराने का मन करता है जहाँ ख़्वाबों-ख्यालों की हरियाली हो.... और आज जब SCHOOL के समय की पुरानी DIARY में लिखी कवितायेँ पढ़ रहा हूँ तो ऐसा लग रहा है कि काश हमने लिखना बंद ना किया होता तो ख्यालों पे कोई बंदिशें ना होतीं, सपनों की पतंगों को किसी TRAFFIC SIGNAL का इंतज़ार ना होता! आज भी इसी खुशफहमी में जी रहे होते कि हम KEYBOARD के मालिक हैं गुलाम नहीं !!..... अब ख्यालों की चहकती चिड़िया को किसी पिंजरे में ना रहने देंगे, कल्पना के आकाश में चाँद तारों की कमी नहीं, दूर आकाश में उड़ने देंगे. बस आज से हमने KEYBOARD के खिलाफ जंग का आगाज करने कि सोच ली है. OFFICE में तो KEYBOARD कि मनमानी बर्दाश्त करा करेंगे लेकिन छुट्टियों के दिन हम शहंशाह होंगे, शब्दों, कविताओं और नज्मों के फूलों पे KEYBOARD को तितली बना के घुमाया करेंगे. नए साल के नए दिन पर यही RESOLUTION है कि ख्यालों में दम भरा करेंगे, अब अच्चा हो कि बुरा, कुछ न कुछ लिखा करेंगे!! .................
लिखने-लिखते, "गुलज़ार साब" की लिखी ये पंक्तियाँ याद आती हैं :-
"आओ फिर नज़्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सूजा ले आँखें
फिर किसी दुखती राग से छुआ दे नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर
एक बार नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दे ले
फिर कोई नज़्म कहें..........."
अब गुलज़ार साब वाला चश्मा तो है नहीं अपने पास
कि पूरी दुनिया को शायरी की घूँघट ओढ़ा कर निहारें!
हाँ ज़ेहन की चादर पे पड़ी ख्यालों के सिलवटों हैं
उन्ही लकीरों में कुछ लम्हे पिरोया करते हैं !
लफ़्ज़ों की स्याही मिल जाती है गर कभी
तो यूँही किसी नज़्म की तश्वीर बनाया करते हैं !
अब इस तश्वीर में गुलज़ार साब की घूँघट वाली दुल्हन तो दिखती नहीं है
पर जैसी भी दिखती है निहारा करते हैं, चलो कोई नज़्म कहते हैं !!
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