Wednesday, 25 January 2012

लंगर

आज गणतंत्र दिवस के मौके पर जब "गण" परेशान है और "तंत्र" मजे लूट रहा है ... शब्दों में देश की इक तश्वीर बनाने की कोशिश करता हूँ ............ऐसा लगता है जैसे ये देश......

इक जहाज है 
अरबों सवार हैं 
और सबने डाले हुए हैं अपने अपने लंगर !
जहाज को रोके हुए हैं, बढने ही नहीं देते !
लंगर से फंसते जाते हैं लंगर, जमीन में गहरे धंसते जाते हैं लंगर !!

रेशम के रेशे वाले लंगर
कुछ पेशे वाले लंगर !
मजबूरियों के लंगर, मनमानियों के लंगर
पिछड़ों के लंगर, खानदानियों के लंगर !
स्विस-बैक की तिजोरियों के लंगर
हज़ारों करोड़ों की चोरियों के लंगर !
कुछ तंग तंग लंगर
और कुछ दबंग लंगर !
मालाओं के लंगर, टोपी के लंगर
दो जून को मिलने वाली रोटी के लंगर !
कपडे के लंगर, मकान के लंगर
सरकारी, मिलावटी दूकान के लंगर !
भगवान् वाले लंगर, इंसान वाले लंगर
बूढ़े, बच्चे जवान वाले लंगर !
लंगर से लंगर, लंगर पर लंगर
लंगर ही लंगर, लंगर दर लंगर !!

खादी और खाकी में छिपने वाले लंगर 
गांधी छाप चादर में ढंके ना-दिखने वाले लंगर  
संसद-बाज़ार में खुलेआम बिकने वाले लंगर
पैसों पे समाचारों में लिखने वाले लंगर  !!

हवाले से हुए हवालों के लंगर
रोज़-रोज़ नए नए घोटालों के लंगर !!

मजहब की आग में पकती रोटीयों के लंगर 
पैदा होने से पहले मार दी जाने वाली बेटियों के लंगर
नक्सलवादियों के बम धमाकों, बैंक डकैतियों के लंगर
अंतरजातीय शादियों पे फांसी देने वाली खाप, पंचैतियों के लंगर !!

समाज में सुलगते जात-पात के लंगर
चोर-बईमानों के ऐशो-आराम, ठाठ-बाट के लंगर !!

राशन-कार्ड में जिन्दा भूतों के लंगर
शहीदों के चोरी होते ताबूतों के लंगर
मुकदमें से पहले मिटते सबूतों के लंगर
पाँव में पड़ी टोपी, सर पे रख्खे जूतों के लंगर !!

हत्या, लूट, अपहरण, नरसंघार के लंगर
कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले भ्रटाचार के लंगर !!

कमिटी और कमिटी पे बैठती कमिटियों के लंगर
दहेज़ के लिए जलती बहु-बेटियों के लंगर
बाल विवाह और बलि जैसी अनगिनत कुरीतियों के लंगर
सफ़ेद बकवासों पे बजती तालियों, सीटियों के लंगर !!

नकली नोटों के लंगर
ख़रीदे हुए वोटों के लंगर !!

झाड़-फूंक, नीम-हकीम, भूत-प्रेतों का लंगर
बुंदेलखंड के सूखे हुए, दरार वाले खेतों का लंगर
गले तक भरे हुए, एसिडिटी में उबलते पेटों का लंगर
भूख की ऐंठ से पीठ से चिपकते पेटों का लंगर !!

बात बात पे होती हड़ताल के लंगर
कभी पूरी न होने वाली जांच-पड़ताल के लंगर !!

कोस कोस पे बदलती बोलियों के लंगर
सड़क पे आवारा घुमती बेरोजगार टोलियों के लंगर
दंगों में खेली जाने वाली खून की होलियों के लंगर
सत्येन्द्र और मंजुनाथ पे चलती गोलियों के लंगर !!

हर साल आती बाढ़ का लंगर
और टूट जाने वाले बाँध का लंगर !
गाड़ियों वाले लंगर, पैदल चलते लंगर
गले मिलते लंगर, पार्टी बदलते लंगर !
फूटपाथ पे चढ़ती कारों के लंगर
बिना इलाज़ मरते बीमारों के लंगर !
बढती आबादी का लंगर
घटती आजादी का लंगर !
लंगर से लंगर, लंगर पर लंगर
लंगर ही लंगर, लंगर दर लंगर !!

लंगर से लंगर फंसे जातें हैं,
जमीन में नीचे ही धंसे जाते हैं,
जहाज़ को और कस के कसे जाते हैं!
 
इक्का-दुक्का कभी फटी हुई पतवार तान देता है,
ठंडी पड़ती भट्टी में मुठ्ठी भर कोयला डाल देता है !
तब दमे की मरीज़ के जैसे खांसता है इंजन, 
किसी लाचार बूढ़े की तरह अपने दिन याद करता है
और बडबडाता है
इक वक़्त था, इस जहाज को "सोने की चिड़िया" बुलाते थे !!

Friday, 20 January 2012

तुम आ जाती ....

ठंड बहोत है...
वक़्त के पेड़ से, बीते लम्हों की कुछ साखें तोड़,
जमा कर दी हैं जेहन के स्टोर-रूम में।
लॉन में बैठे, यादों की अंगीठी जलाता हूँ।
आँखों में धुआं लग गया है शायद
या कुछ जमे हुए से ख्वाब पिघल गए हैं।
कि पलकों की छत से पानी टपक रहा है
बूंद बूंद तेरी आहट सुनाई देती है!!
तुम आ जाती ....

ठंड बहोत है ....
कुछ साफ़ साफ़ नहीं दीखता, कोहरा सा छाया है 
कुछ बोलते नहीं हैं, जाने किसका गुमां है?
सीने में लगता है खामोशी जल रही है शायद!
कुछ बोलते नहीं है लेकिन रह-रह के धुंआ निकलता है
सांस सांस तेरी आहट सुनाई देती है!!
तुम आ जाती ....

ठंड बहोत है ....
जो पत्ते उम्मीदों का बोझ नहीं उठा पाए, टूट गए 
जमीन पर पड़े हैं, उदास चेहरों के जैसे पीले पड़ गए हैं।
बीमार हैं, चांदनी की दूध पीकर भी ठीक नहीं होते, दम तोड़ते हैं।
हवा भी थम गयी है, पेड़ साँसे रोके खड़े हैं, टुकुर-टुकुर ताकते हैं बस बेबसी में
उदास आँखों से मोती लुढक आता है कभी तो इक आह गूंजती है 
पत्ता-पत्ता तेरी आहट सुनाई देती है !!
तुम आ जाती ....

ठंड बहोत है ....
देर रात तक जागते हूँ, 
सोने के वक़्त नींद आती ही नहीं।
आती भी है तो बता कर नहीं आती 
जैसे जाने के पहले तुमने बताया नहीं था।  
विस्की में इन्तजार के लम्हे घोलते घोलते मैं,
जाने कब रात में घुल जाता हूँ, सो जाता हूँ 
घूँट घूँट तेरी आहट सुनाई देती है !!
तुम आ जाती ....
तुम आ जाती कि तुम्हारे बिना जिन्दगी ठंडी सी हो गयी है!!!!
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कई दिनों से हमने धुप देखी नहीं है, मुद्दतों से तेरा खिला चेहरा नहीं देखा !

Friday, 13 January 2012

वक़्त मिलता तो....



वक़्त मिलता तो.....
घर की  छत पर बैठ 
ख्यालों से ऊँची पतंगें उड़ाते !!

तितलीयाँ पकड़ते और 
आसमान के खेत में जो बादल का ठीला है 
वहां बो आते 
वक़्त मिलता तो 
परियों की फसल उगाते !! 

बरगद की लटकती जड़ों में 
ट्रैक्टर का पुराना टायर बाँध झूला करते !
माँ के आँचल में गीला सर छुपाये, 
पापा की डांट सुनते !
वक़्त मिलता तो 
बारिश में नहाते !!

चारदीवारी फांदते 
बगीचे से टिकोले चुराते 
वक़्त मिलता तो 
भगवान् से बातें करते 
मंदिर के घंटे बजाते !!

खलिहान में शीशे के कंचों से खेलते, 
लट्टू नचाते, किसी से आँख लड़ाते !
लुका-छिप्पी के खेल में कहीं छुप कर
झुकी पलकें उठाते, किसी से नजरें मिलाते !
वक़्त मिलता तो 
पत्थर में चिट्टी लपेट कर 
किसी खिड़की पे निशाना लगाते !! 

गाँव की हाट से 
ख़ाक छानने की छन्नी खरीद लाते
और कुछ ख्वाब छानते !
वक़्त मिलता तो 
किसी की आँखों में डूब जाते !!

स्कूल की सड़क पे साइकिल की रेस लगाते
किसी हसीं लड़की को देख ब्रेक लगाते
वक़्त मिलता तो 
राह चलती लड़कियों को छेड़ते,
कशीदे गड़ते, सीटी बजाते !!

किसी की टांग खींचते 
खिल्ली उड़ाते !
वक़्त मिलता तो 
दोस्तों से मिल आते !
यहीं पास में रहते हैं, साथ ताश खेलते 
वक़्त मिलता तो 
ठंडी सुबह, गरमा-गरम पोहे-जलेबी खाने को 
रात भर जागते, गप्पें लड़ाते !!

धुंए का छल्ला बनाते,
कोई कहानी सुनाते 
और मिर्च का छौंका देते !
वक़्त मिलता तो 
पडोसी का मुर्गा पकाते !!

बच्चन की मधुशाला में शराब पीते
झूमते, लड़खड़ाते !
खुद की दुखती पे रोते,
दूसरों पे ठहाके लगाते !
वक़्त मिलता तो 
बे-वजह किसी बात पे झगड़ लेते 
नौटंकी ख़तम होते ही
गले मिलते, मुस्कुराते !!
वक़्त मिलता तो 
पुराने दोस्तों से मिल आते !!
 
किसी ख़याल का पीछा करते,
नज़रों से कोई सरापा नापते !
ख्वाहिशों का झोला टाँगे,
छुटती ट्रेन के पीछे भागते !
इस भीड़ में कभी अपनी खामोशी सुनते 
अकेले में कभी गला फाड़ के चिल्लाते !
वक़्त मिलता तो 
खुद को आवाज लगाते !!

रफ़ी को सुनते 
साहिर को गुनगुनाते !
कलम उठा के शब्दों की आड़ी-टेड़ी लकीर खींचते 
वक़्त मिलता तो 
ग़ालिब को पढते
और इक नज़्म की तश्वीर बनाते !! 
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वक़्त से मिले जमाना हो गया है 
आखिरी मिले थे तब 
घड़ी देखनी नहीं आती थी !
वक़्त मिलता तो 
घर बुलाते 
दीवार पे धड़कती 
काँटों वाली घड़ी दिखाते !!!!

Sunday, 8 January 2012

दोपहर की धूप और पसीने में नहाई लड़की


आज लिखने बैठे तो गाँव की पंजाबी सलवार-कुर्ते और लम्बी चोटी वाली लड़की की याद कर बैठे, उसके SCHOOL आने-जाने के समय किसी न किसी बहाने सड़क पे निकल जाना याद आ गया. जिसने भी Malèna  देखी हो, ये तश्वीर, हालात के जज्बात बयाँ करती है :) ....................

वो दोपहर की धूप और तंग रेशमी कुर्ती
चोटी से पंखा झेलती, पसीने में नहाई लड़की !!

वो धूप सेंकती नजरें और बेशर्म हवा के झोंके
दुप्पटे में छिपती और सिमटती, पलकें झुकाई लड़की !!

वो शोखिये रफ़्तार और मुजरिमे-दीदार की आहें
जुमले-कशीदे सुनती, रहगुज़र की सताई लड़की !!

वो चाल अल्हड और कमसिन हुस्ने-कयामात
हर नफ़स में बिजली गिराती, खुदा ने कैसी बनाई लड़की !!

वो बेलगाम धड़कन और चढ़ता पारा 'ग़ुलाम'
आतशे-दीदार मैं जलाती, कूचा-ए-क़ातिल से आई लड़की !!




रहगुजर : रास्ता; नफ़स : सांस; कूचा-ए-क़ातिल : क़ातिल की गली

Saturday, 7 January 2012

तेरा वहम कहें ....


जो इश्क़ के हासिल को बयां करना हो 
ग़म को ख़ुशी और ख़ुशी को ग़म कहें !!

ये इन्हाए-शौक़ और लबों पे बस तेरा ही नाम 
मन्नत करें कैसे, क्या क्या अलम कहें !!

ये दूरियों का दस्त, ये उम्मीद की हवा 
कल तक बदल ही देगी मौसम कहें !!

ये दुश्वारिये हयात और तालीम हकीमाना
हासिल को बहोत और जियां को कम कहें !!

खिजां के बिच भी हैं चमकते पीले पत्ते 
हौसलाए बहार कहें या फिजां का दम कहें !!

ये बदगुमानी न हो कि तुझसे बिछड़ जायेंगे 
तेरे ख्वाबों-ख्यालों से आँखों को नम कहें !!

तेरा सजदा अब और कैसे करें खुदा
तेरे बनाये को खुदा हम कहें !!

चिलमन के पार तेरी ही जानिब थीं आँखें 'ग़ुलाम'
कहने वाले भले ही इसे तेरा वहम कहें !!

इन्हाए-शौक़ : प्यास की तीव्रता; अलम : दुःख; दुश्वारिये-हयात : जिन्दगी की कठिनाईयां; हकीमाना : दार्शनिक; दस्त : रेगिस्तान; जियां : हानि; सजदा : प्रार्थना; चिलमन : पर्दा; जानिब : ओर

Friday, 6 January 2012

दिल का दस्तूर...


दिल का दस्तूर समझाए कोई 
जख्म खुद को दे मुस्कुराए कोई !!

वो देखो तूफां का रुख अपनी ओर हुआ 
फिर चरागों की किस्मत आजमाए कोई !!

दिल और दर्द का रिश्ता जान लें जो अगर 
बेचारगिये-इश्क में आंसू न बहाए कोई !! 

है जिस्म की सरगोशियों का शोर बहोत 
कैसे रूह को आवाज़ दे पाए कोई !!

ख़ाक-नशीनों पे देखिये बरसी यूँ इल्मो-हिकमत 
आतशे-इश्क से खसो-खशाक जलाए कोई !!

हरेक जर्रे से नुरे खुदाई बहती है 
किसी दरख़्त को गले से लगाए कोई !!

लहरों के खेल की 'ग़ुलाम' होती है इब्तिदा 
फिर समंदर किनारे घरोंदे बनाए कोई !!

ख़ाक-नशीनों : जमीन पे बैठनेवाले; इल्मो-हिकमत : ज्ञान-दर्शन; आतशे-इश्क : प्रेम-अग्नि; खसो-खशाक : घास-फूस; इब्तिदा : शुरुआत
 

Monday, 2 January 2012

इतना तो सरुर रखें ...


बात वाज़िब है कि खुद को दिल से दूर रखें
दिल को दिल कि बातों में ही मगरूर रखें !!

रात कि चादर पे नींद कि सिलवटों से लिखे
दो चार ख्वाब सिरहाने में जरुर रखें !!

अपने दर्द कि खबर आँखों को ना जाए कहीं 
जुनुए-चश्मे-मयफ़रोशी में खुद को चूर रखें !!

कि हरेक तुफां में साक़ी का सहारा हो जरुरी 
वक़्त के हाथों खुद को यों ना मजबूर रखें !!

बेसाख्ता राहों पे नजरें बिछाये कोई तो होगा 
हर सफ़र से पहले इतना तो सरुर रखें !!


जुनुए-चश्मे-मयफ़रोशी : नशीली आँखों का जुनू; बेसाख्ता : कठिन

Sunday, 1 January 2012

Keyboard की ग़ुलामी !!


बचपन में जब घर पे थे, फ्रिज पर रखे sound box से --
गुलाम अली और मेंहदी हसन साहब सुबह-शाम अज़ान दिया करते थे,
साकी के मोहल्ले से मैकदा होते हुए, पंकज उधास और जगजीत सिंह
अपनी ग़ज़ल गायकी प्रतियोगिता लेकर गाहे-बगाहे आते ही रहते थे.

अब आवाज तो ऐसी थी नहीं कि इनकी तरह हम गा तो सकते नहीं थे, सो सोचा बजाना सीख लेते हैं, बस लगे घर में पड़े इक पुराने हारमोनियम पे हाथ पटकने. हमें अपनी वाद्ययंत्र प्रतिभा पहचानते और हारमोनियम टूटते देर ना लगी और ग़ालिब, फैज़, जिगर, मोमिन और गुलज़ार के सफहों में दबी चिंगारी की तरह ही हमारा उंगलियाँ थिरकाने का सपना कहीं दब सा गया. पढाई-लिखी ने IIT KANPUR पंहुचा दिया.....

  COLLEGE में  कुछ अदभुत लोगों से से मिलना हुआ जिन्होंने हमारे दिल में 'दोस्ती' का पंच-सितारा सराय
खोल दिया और जिन्दगी भर के लिए चेक-इन कर लिया! इस सराय के प्रबंधन के ताम-झाम और वैद्युत-अभ्यान्त्रिकी के नियमित झटके, जेहन में सोयीं मुवास्सिरी की अंगड़ाईयों को बारहा सुलाते रहे.
सराय की महफ़िलों में जब भी खून की सरगोशियाँ, सरकारी खतरे का निशान पार करतीं, हम "बच्चन की मधुशाला" की रटी-रटाई पंक्तियाँ सुना कर इन लहरों को भी सुला दिया करते थे. इस दौरे-तरक्की में, दोस्तों ने हमारा परिचय "पत्थर" और "धातु" संगीत से भी कराया! अंग्रेजी पे हमारी विशेष पकड़ के बारे में हमें बताने की जरुरत नहीं है, लेकिन गाँव की 'गंवारियत से तथाकथित आधुनिकता' के अनुकूलन में हम इन "पथरीले" और "धातुई" शोर में नाचते-झूमते भीड़ मैं शामिल हो गए, शेरों-शायरी, गजलकारी और गद्य-पद्य की आवाजें इस शोर में खोती गयीं......
इसी बीच हम अपने भविष्य के मालिक से भी मिले, जी हाँ श्रीमान KEYBOARD से, कलम का रिश्ता तो बस EXAMS तक रहा गया था और वहां भी कमबघ्त लिखने को शब्द कम पड़ जाते थे. दोस्ती के सराय में भी अब FACEBOOK की समाचार पट्टिका पे हाजरी होने लगी थी. जैसा की Sigmund Freud साहब कहते हैं, हमारे जेहन के तहखाने मैं कैद हारमोनियम के बटनों की खट-खट, हमें अब KEYBOARD के बटनों में सुनाई देने लगी थीं. जिन्दगी के सारे रंग तो देखे नहीं अब तक, लेकिन उन रंगों से भी जयादा रंग दिखने का दावा करने वाली DIGITAL SCREENS पे आँखें टिकने लगी थीं.  इस खुशफहमी के साथ की हमारी धुन पे नाचता है जो उस KEYBOARD पे बरबस उंगलियाँ थिरकती रहती थीं......
वक़्त बदला भारतीय प्राद्यौगिकी संस्थान से विदा ली हमने! रोज़ी-रोटी की तलाश मैं BANGALORE में आकर शरण ली, और यहाँ हमें ज्ञान हुआ की दरअसल हमारी खुशफहमी, ग़लतफ़हमी थी और तबतक हम KEYBOARD के गुलाम बन चुके थे :( जी हाँ, KEYBOARD पे अपनी उंगलियाँ थिरकाना ही हमारा पेशा है! KEYBOARD की गुलामी करते हैं हम !! कहने को तो इस KEYBOARD में 100 से ज्यादा KEYS हैं लेकिन इसकी गुलामी का ताला किसी चाबी से नहीं खुलता !! जी हाँ "KEYBOARD के गुलाम" हैं हम !!
            दोस्ती के सराय के कमरों में बस यादों की तश्वीरें तंगी पड़ी हैं, कुछ तो कमरे भी खाली हो गए हैं, और KEYBOARD की मेहरबानी से कुछ कमरों में नए लोग भी आ गए हैं और कुछ पर ताला लटका पड़ा है, यदा-कदा FACEBOOK या PHONE पे जब कभी बातें होतीं हैं तो KEYBOARD से हम इन DIGITAL तालों का KEYS मांग लिया करते थे और उन पुरानी पड़ती तश्विरों को निहार आते हैं......
 प्रेमचंद से "कलम के सिपाही" की बातें सुनते सुनते भी हम "KEYBOARD के गुलाम" बन गए !!

मजबूरी का अहसास ही गुलामी का ख़याल लाता है, KEYBOARD पे SCRIPTS लिखते-लिखते, जिन्दगी की SCRIPT में भी SYNTAX और FONT के मायने और बंदिशें आने लगी हैं! डर लगने लगा है, धडकनों को भी BYTES में ना गिनने लग जाऊं! आखिरी चार-पांच सालों के सफ़र में ऐसे मोड़ पे आ गए हैं, जहाँ से आगे के रास्ते FLOW-CHART पर खीचें हैं और RECURSION की भूल-भुलैया हमें बार-बार इसी मोड़ पर ला पटकती है!............. और आज अचानक KEYBOARD की खट-खट ने यादों में सोये गुलाम अली साब के हंगामों को जगा दिया है और जाने कितने ही शब्दों, नगमों, और ख्यालों की अंगडाइयां जेहन मैं शोर मचाने लगी हैं. आज ख्यालों के बादल पे बैठ, गाँव के उन खेतों के ऊपर मंडराने का मन करता है जहाँ ख़्वाबों-ख्यालों की हरियाली हो.... और आज जब SCHOOL के समय की पुरानी DIARY में लिखी कवितायेँ पढ़ रहा हूँ तो ऐसा लग रहा है कि काश हमने लिखना बंद ना किया होता तो ख्यालों पे कोई बंदिशें ना होतीं, सपनों की पतंगों को किसी TRAFFIC SIGNAL का इंतज़ार ना होता! आज भी इसी खुशफहमी में जी रहे होते कि हम KEYBOARD के मालिक हैं गुलाम नहीं !!..... अब ख्यालों की चहकती चिड़िया को किसी पिंजरे में ना रहने देंगे,  कल्पना के आकाश में चाँद तारों की कमी नहीं, दूर आकाश में उड़ने देंगे.  बस आज से हमने KEYBOARD के खिलाफ जंग का आगाज करने कि सोच ली है. OFFICE में तो KEYBOARD कि मनमानी बर्दाश्त करा करेंगे लेकिन छुट्टियों के दिन हम शहंशाह होंगे, शब्दों, कविताओं और नज्मों के फूलों पे KEYBOARD को तितली बना के घुमाया करेंगे. नए साल के नए दिन पर यही RESOLUTION है कि ख्यालों में दम भरा करेंगे, अब अच्चा हो कि बुरा, कुछ न कुछ लिखा करेंगे!! .................

 लिखने-लिखते, "गुलज़ार साब" की लिखी ये पंक्तियाँ याद आती हैं :-
"आओ फिर नज़्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सूजा ले आँखें
फिर किसी दुखती राग से छुआ दे नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर
एक बार नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दे ले
फिर कोई नज़्म कहें..........."

अब गुलज़ार साब वाला चश्मा तो है नहीं अपने पास
कि पूरी दुनिया को शायरी की घूँघट ओढ़ा कर निहारें!
हाँ ज़ेहन की चादर पे पड़ी ख्यालों के सिलवटों हैं 
उन्ही लकीरों में कुछ लम्हे पिरोया करते हैं !
लफ़्ज़ों की स्याही मिल जाती है गर कभी
तो यूँही किसी नज़्म की तश्वीर बनाया करते हैं !
अब इस तश्वीर में गुलज़ार साब की घूँघट वाली दुल्हन तो दिखती नहीं है
पर जैसी भी दिखती है निहारा करते हैं, चलो कोई नज़्म कहते हैं !!