Friday, 29 June 2012

गुलज़ार, तू इक नज़्म है!



एक महकती हुई आवाज है, बीतती नहीं है।
इत्र की शीशी है जो खाली नहीं होती,
तेरे हाथों से छुटी थी, किसी लम्हे से फूटी थी, 
जाने कितने फूल चूम आता हूँ, 
जब तेरे सफहों की खुशबू सुनाई देती है।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

चांदनी के धागों से जो चटाई तुने बुनी थी,
घंटों उसपे बैठ बादलों की सैर करता हूँ मैं।
रास्ते में सैयारे मिलते हैं जब कभी,
तेरी खैरियत पुछा करते हैं।
मैं सुना देता हूँ तुझे।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

जेहन के फर्श पे कतार में चलती,
 कुछ चिंगारियां मिल जाती हैं,
अक्सर, चीनी चुरा लाती हैं स्टोर-रूम से!
तेरी डायरी का पता पूछतीं हैं।
मैं तेरे पुराने cassettes  वाली आलमारी तक छोड़ आता हूँ उन्हें।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

वक़्त से परे गूंजती इक रौशनी है,
जाने कितने ही जज्बातों को रौशन कर जाती है।
शब्दों के लिबास में माने ऐसे चमकते हैं,
मानो दवात में स्याही नहीं नूर भर रख्खा हो।
जल उठती है आँखों, जब भी पढता हूँ तुझे,
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

लॉन के गमलों में जब पानी कम जाता है,
मिट्टी भी मुरझाने सी लगती है।
तेरी बोतल से चुराकर, मैं थोड़ी सी विस्की डाल देता हूँ।
तेरी जुबानी अपने सुख-दुःख बतियाती है,
मिटटी दुआएं देती है तुझे।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

बचपन में चंदा मामा पुए पकाया करते थे।
जाने कब उन्होंने छुट्टी ले ली!
अब तू ही देख-रेख करता है।
वैसे कमाल का रसोइया है तू,
बड़े स्वादिष्ट खयाली पुलाव पकाया करता है।
होठों से तारीफ़ और जबां से जायका नहीं जाता।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!
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तुझको सुनने वाले, हम गुंचे चुनने वाले,
बागों में तेरे लफ्ज चुनते रहेंगे।
फूल मिलेंगे तो तेरे किसी पयाम की खुशबू होगी,
काँटों में चुभता कोई तेरा ही कलाम होगा।
गुलज़ार तुझे पढ़ते रहेंगे, यूँही गुनगुनाते रहेंगे 
और जियेंगे तुझे।
गुलज़ार तू इक नज़्म है जो बीतेगी नहीं।
गुलज़ार तू इक नज़्म है जो बीतेगी नहीं।।
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