Saturday, 9 June 2012

बैठे हैं!



जाने कितनी ही बेगुनाहियाँ कैद हैं सलाखों के पीछे
जाने कितने जुर्म सफेदपोश बने बैठे हैं!
गले की आवाज दबा दी है हमने, कुछ बोलते नहीं हैं
चुपचाप हैं, इक बुत बने बैठे हैं!!
              
अन्दर ही अन्दर जल रहे हैं,
अपनी ही आंच में पक गए हैं!
किसी ढाबे पे सींक में सजे हुए नंगे मुर्गे की तरह
बेबस और लाचार, सरे-बाज़ार बिकने बैठे हैं!!
                     
हाथ पे हाथ डाल बैठे हैं,
बस सोचते हैं, कुछ भी करते नहीं हैं!
किसी मंदिर के घण्टे की तरह टंगे हुए हैं अपनी ही बनाई मजबूरियों में
और तवायफ की घूँघरू की तरह बजते हैं!
अपनी आबरू को ढंके हुए, हाथ पे हाथ डाल बैठे हैं!!
                    
अपनी साँसों की हिफाजत को सांस लेते हैं,
बस अपनी जरुरत भर का हिसाब लेते हैं!
दिन दहाड़े जाने कितनों के घर उजड़ रहे है हमें परवाह नहीं है!
ये चिलचिलाती धुप चुभती नहीं है हमें,
अपने साए की छांव में मूंह छुपाये बैठे हैं!!
          
एक अन्ना करता है चौकन्ना,
भूखे पेट जंतर-मंतर से आवाज लगता है!
उम्र हो गयी है शायद सठिया गया है,
अंधों की बस्ती में आईने का बाजार लगता है!
बहरों को जिन्दगी के गीत सुनाता है!
जिन्दगी की तलाश में जो लाश बने बैठे हैं!!


चलेंगे जो सोच के बैठे हैं, जाने कब से बैठे हैं
चल पड़ें तो ये धरती चले, आसमान चले
हम चलें तो हिन्दुस्तान चले!!!!

3 comments:

  1. अंधो की बस्ती में आइनो का बाज़ार, वाह |

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  2. कोई खोलेगा कुछ पन्ने, इसी इंतज़ार में,
    हम तो अरसे से किताब बने बैठे हैं ,
    अब तो स्याही भी नहीं ग़मों की ,
    जोड़ लेते कुछ पन्ने
    बस खलिश की रेत पे
    लकड़ी से उकेरे ,
    अल्फाज़ बने बैठे हैं.
    .......
    प्रियंक यार .....बहुत बढ़िया
    सच में शब्द नहीं हैं ....सारी कवितायें तेरी कमाल की हैं
    बधाइयाँ ढेर सारी .........!!

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  3. शुक्रिया दोस्त :) अब ऐसे कमेंट्स आयेंगे तो कविता और भी सुन्दर हो जायेगी

    "बस खलिश की रेत पे
    लकड़ी से उकेरे ,
    अल्फाज़ बने बैठे हैं"

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