Saturday, 30 June 2012

वसीयत


वक़्त की कचहरी लगी थी,
जायदात का बंटवारा था शायद।

वकील इल्जामों की लिस्ट पढ रहा था--

यादों के मकान:: जर्जर हैं, जाने कब से मरम्मत नहीं हुई है!
ख़्वाबों के खेत:: सब बिक गए हैं, जो बचे हैं वो बंजर हैं, घास भी नहीं उगती!
हंसी के गहने:: सोने के नहीं, चांदी के हैं सब, फीके-फीके सफ़ेद!
दर्द के फर्नीचर:: टूटे-फूटे हैं, इनपर नींद भी नहीं आती!
दोस्ती की दूकान:: वीरान है, अब तो कोई आता जाता भी नहीं!
रिश्तों की अकाउंट:: सब खाली-खाली हैं!
नाम की पूँजी:: बस नाम की रह गयी है!
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सुख-दुःख के हिसाब के बाद फैसला आना था!
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सारे इलज़ाम मौत के नाम कर गयी,
जिन्दगी ने वसीयत पे दस्तख़त कर दी!!!

Friday, 29 June 2012

गुलज़ार, तू इक नज़्म है!



एक महकती हुई आवाज है, बीतती नहीं है।
इत्र की शीशी है जो खाली नहीं होती,
तेरे हाथों से छुटी थी, किसी लम्हे से फूटी थी, 
जाने कितने फूल चूम आता हूँ, 
जब तेरे सफहों की खुशबू सुनाई देती है।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

चांदनी के धागों से जो चटाई तुने बुनी थी,
घंटों उसपे बैठ बादलों की सैर करता हूँ मैं।
रास्ते में सैयारे मिलते हैं जब कभी,
तेरी खैरियत पुछा करते हैं।
मैं सुना देता हूँ तुझे।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

जेहन के फर्श पे कतार में चलती,
 कुछ चिंगारियां मिल जाती हैं,
अक्सर, चीनी चुरा लाती हैं स्टोर-रूम से!
तेरी डायरी का पता पूछतीं हैं।
मैं तेरे पुराने cassettes  वाली आलमारी तक छोड़ आता हूँ उन्हें।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

वक़्त से परे गूंजती इक रौशनी है,
जाने कितने ही जज्बातों को रौशन कर जाती है।
शब्दों के लिबास में माने ऐसे चमकते हैं,
मानो दवात में स्याही नहीं नूर भर रख्खा हो।
जल उठती है आँखों, जब भी पढता हूँ तुझे,
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

लॉन के गमलों में जब पानी कम जाता है,
मिट्टी भी मुरझाने सी लगती है।
तेरी बोतल से चुराकर, मैं थोड़ी सी विस्की डाल देता हूँ।
तेरी जुबानी अपने सुख-दुःख बतियाती है,
मिटटी दुआएं देती है तुझे।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!

बचपन में चंदा मामा पुए पकाया करते थे।
जाने कब उन्होंने छुट्टी ले ली!
अब तू ही देख-रेख करता है।
वैसे कमाल का रसोइया है तू,
बड़े स्वादिष्ट खयाली पुलाव पकाया करता है।
होठों से तारीफ़ और जबां से जायका नहीं जाता।
गुलज़ार, तू इक नज़्म है!
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तुझको सुनने वाले, हम गुंचे चुनने वाले,
बागों में तेरे लफ्ज चुनते रहेंगे।
फूल मिलेंगे तो तेरे किसी पयाम की खुशबू होगी,
काँटों में चुभता कोई तेरा ही कलाम होगा।
गुलज़ार तुझे पढ़ते रहेंगे, यूँही गुनगुनाते रहेंगे 
और जियेंगे तुझे।
गुलज़ार तू इक नज़्म है जो बीतेगी नहीं।
गुलज़ार तू इक नज़्म है जो बीतेगी नहीं।।
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Saturday, 16 June 2012

बड़ी अच्छी लगती हो तुम


तेरे ख़याल बीतते नहीं है,
चांदनी के धागों की तरह।
बुनता रहता हूँ मैं ना ख़तम होने वाले ख़ाब,
ओस की रातों में लॉन में बैठे बैठे,
तेरी यादों की शॉल में शबनम के मोती जड़ता रहता हूँ।
सोचता हूँ,
धुप में कैसी चमकती हो तुम।
यूंही चमकती रहना
गरम गरम बड़ी अच्छी लगती हो तुम!!
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तेरी मुस्कान बीतती नहीं है,
बचपने की तरह।
बार-बार जीता हूँ मैं, पर हसरत कम नहीं होती।
जो गालों के गुब्बारे फुलाती हो
और फोड़ती हो ताली बजा कर,
सोचता हूँ,
हंसती हो तो पूरी खिल जाती हो तुम।
यूंही हंसती रहना
खिली खिली बड़ी अच्छी लगती हो तुम।।
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तेरी आवाज बीतती नहीं है,
दुआओं की तरह।
दिल में जो खुदा है सुना करता है।
कस्तूरी की खुशबू हैं तेरी अनकही बातें,
हिरन बना महकता रहता हूँ मैं।
सोचता हूँ,
आँखों से जाने क्या क्या कहती हो तुम।
यूंही बातें करना
बातें बनाती बड़ी अच्छी लगती हो तुम।।
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तेरा अहसास बीतता नहीं है,
इक दबी ख्वाहिश की तरह,
मैं सीने में सम्हाल के रखता हूँ, 
सहलाता हूँ साँसों से मद्धम-मद्धम 
जैसे रौशनी छुआ करती है।
सोचता हूँ,
दूर होके भी कितनी पास होती हो तुम।
यूंही हमेशा साथ रहना
कन्धों पे रख्खे सर, बड़ी अच्छी लगती हो तुम।।
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तेरे अंदाज बीतते नहीं हैं,
तसव्वुर की तरह,
लाख कोशिश करे,
दिल चल नहीं सकता, तेरे भवों की धार पे
जोही त्योरी चढ़े फिसल जाता है,
तेरी जुल्फों में उलझ के सम्हल जाता है।
सोचता हूँ,
हर दफा नयी सी दुल्हन लगती हो तुम।
यूंही नयी-नवेली रहना
ताज़ा ताज़ा बड़ी अच्छी लगती हो तुम।।







Saturday, 9 June 2012

बैठे हैं!



जाने कितनी ही बेगुनाहियाँ कैद हैं सलाखों के पीछे
जाने कितने जुर्म सफेदपोश बने बैठे हैं!
गले की आवाज दबा दी है हमने, कुछ बोलते नहीं हैं
चुपचाप हैं, इक बुत बने बैठे हैं!!
              
अन्दर ही अन्दर जल रहे हैं,
अपनी ही आंच में पक गए हैं!
किसी ढाबे पे सींक में सजे हुए नंगे मुर्गे की तरह
बेबस और लाचार, सरे-बाज़ार बिकने बैठे हैं!!
                     
हाथ पे हाथ डाल बैठे हैं,
बस सोचते हैं, कुछ भी करते नहीं हैं!
किसी मंदिर के घण्टे की तरह टंगे हुए हैं अपनी ही बनाई मजबूरियों में
और तवायफ की घूँघरू की तरह बजते हैं!
अपनी आबरू को ढंके हुए, हाथ पे हाथ डाल बैठे हैं!!
                    
अपनी साँसों की हिफाजत को सांस लेते हैं,
बस अपनी जरुरत भर का हिसाब लेते हैं!
दिन दहाड़े जाने कितनों के घर उजड़ रहे है हमें परवाह नहीं है!
ये चिलचिलाती धुप चुभती नहीं है हमें,
अपने साए की छांव में मूंह छुपाये बैठे हैं!!
          
एक अन्ना करता है चौकन्ना,
भूखे पेट जंतर-मंतर से आवाज लगता है!
उम्र हो गयी है शायद सठिया गया है,
अंधों की बस्ती में आईने का बाजार लगता है!
बहरों को जिन्दगी के गीत सुनाता है!
जिन्दगी की तलाश में जो लाश बने बैठे हैं!!


चलेंगे जो सोच के बैठे हैं, जाने कब से बैठे हैं
चल पड़ें तो ये धरती चले, आसमान चले
हम चलें तो हिन्दुस्तान चले!!!!