Thursday, 10 May 2012

कविता जल गयी है !!

कागज झुलस गए हैं,
कलम पिघल गयी है।
जाने किस ख़याल की चिंगारी छु गयी
कविता जल गयी है!!


परेशां परेशां रहती थी वो आजकल,
सफहों की सीढियाँ चढ़ती-उतरती रहती थी,
कि किसी मंजिल पे कोई गूंजती आवाज मिल जाये 
और लगा ले सीने से
सर पे हाथ फेरे और घर के नाम से पुकारे।

इक कशमकश सा था उसके चेहरे पे, 
जैसे अपना ही साया उभर आया हो,
अँधेरे कमरे में घंटों आइना निहारा करती थी।
अजीब उधेड़बुन में थी,
बड़ी बेचैन  रहती थी आजकल
सूखे सब्दों में मानों के कतरे तलाशा करती थी!

अनकही बातों के बंद कमरों के बाहर, 
बेबसी के दरवाजों से कान लगाये पहरों-पहर गुजार देती थी। 
तुक-बेतुक की तुकबंदी में,
खाने-पिने की भी सुध नहीं थी उसे।
गाहे-बगाहे किसी पन्ने से टिक कर झपक लेती थी आँखें!

थकी-थकी सी रहती थी, थोड़ी सी झुक भी गयी थी। 
आँचल की गाँठ मुठ्ठी में दबाये, 
करती रहती थी खुद से ही बातें।
हार मान ली, लगता है उसने ख़ुदकुशी कर ली !!
या किसी ने जला डाला ?
दवात में पड़े पड़े स्याही सुख रही थी
लगता है किसी ने केरोसिन मिला दी थी, हल्का करने को!
जाने किस ख़याल की चिंगारी छु गयी
कविता जल गयी है!!


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