Sunday, 13 May 2012

माँ

किसी भी भाषा का सबसे सुन्दर शब्द है "माँ"! भावनाओं का सृजन है, वात्सल्य विस्तार है, प्रेम अनंत है माँ!    आज Mother's Day को, 10th की अपनी diary से माँ पर लिखी एक लम्बी कविता ढूंढ निकाली .... आज  भी लिखने बैठूं तो ऐसा ही कुछ लिखूंगा इसीलिए कुछ पंक्तियाँ दोहरा रहा हूँ।


सारा का सारा ही सच लगता है, माँ जो भी तू कहती है
नहीं बता सकता मैं माँ तू कितनी अच्छी लगती है।

जब अपने साए भी अँधेरे में कहीं दूर निकल जाते हैं माँ 
तेरी दुआ की रौशनी ऊंगली पकड़ के साथ चलती है।

खामोशियों में जब भी अपनी धड़कने सुनता हूँ
पीठ पर पड़ती तेरी थपकी सी गुजरती है। 

जैसा तू कहती है, मेरे खवाबों में, मैं वैसा ही सोना दीखता हूँ  
मैं सोया हूँ और तू हाथों से बिखरे बालों की कंघी करती है।

जाड़े में तले हुए लहसुन, गरमी में वो ताड़ का पंखा ढूंढता हूँ
बारिश में जब भी भींगता हूँ, तेरे आँचल की याद आती है।

तेरी आँखों की धुप से मुरझाया भी मैं खिल जाता हूँ 
नूर सींचती तेरी नजर जब जब मुझपे पड़ती है।

पढ़ी लिखी तू नहीं है ज्यादा पर मुझको पढ़ लेती है झट से
मेरे दिल की सुन लेती है, तू  मेरे मन की कहती है।

मेरी उंगली के पोरों में तेरी हाथों के खाने की खुशबू है 
ममता की थाली में माँ तू प्यार परोसा करती है।

तेरे भैया चंदा से अब भी पुए पकवाता हूँ मैं
फ़ोन पे अब भी तू 'खाना खाया या नहीं?' पुछा करती है।

आँखों में अपने 'हीरे' की चमक लिये देखा है जब भी
हर उस माँ के चहरे में तेरी तश्वीर दिखाई देती है।

इकतारे की इक डोरी है बंधी हुई है, कोई गाँठ नहीं है
बजती है जब मैं माँ कहता हूँ और तू बेटा कहती है।  

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नहीं बता सकता मैं माँ तू कितनी अच्छी लगती है।
तू ही कौशल्या, तू ही यशोदा तू ही मेरी देवकी है।। 

Thursday, 10 May 2012

कविता जल गयी है !!

कागज झुलस गए हैं,
कलम पिघल गयी है।
जाने किस ख़याल की चिंगारी छु गयी
कविता जल गयी है!!


परेशां परेशां रहती थी वो आजकल,
सफहों की सीढियाँ चढ़ती-उतरती रहती थी,
कि किसी मंजिल पे कोई गूंजती आवाज मिल जाये 
और लगा ले सीने से
सर पे हाथ फेरे और घर के नाम से पुकारे।

इक कशमकश सा था उसके चेहरे पे, 
जैसे अपना ही साया उभर आया हो,
अँधेरे कमरे में घंटों आइना निहारा करती थी।
अजीब उधेड़बुन में थी,
बड़ी बेचैन  रहती थी आजकल
सूखे सब्दों में मानों के कतरे तलाशा करती थी!

अनकही बातों के बंद कमरों के बाहर, 
बेबसी के दरवाजों से कान लगाये पहरों-पहर गुजार देती थी। 
तुक-बेतुक की तुकबंदी में,
खाने-पिने की भी सुध नहीं थी उसे।
गाहे-बगाहे किसी पन्ने से टिक कर झपक लेती थी आँखें!

थकी-थकी सी रहती थी, थोड़ी सी झुक भी गयी थी। 
आँचल की गाँठ मुठ्ठी में दबाये, 
करती रहती थी खुद से ही बातें।
हार मान ली, लगता है उसने ख़ुदकुशी कर ली !!
या किसी ने जला डाला ?
दवात में पड़े पड़े स्याही सुख रही थी
लगता है किसी ने केरोसिन मिला दी थी, हल्का करने को!
जाने किस ख़याल की चिंगारी छु गयी
कविता जल गयी है!!